अखण्ड रामायण पाठ करने के लिए अवश्यक नियम
"श्री राम एवं रामायण" जी के ऊपर आपकी अटूट श्रद्धा होनी आवश्यक है, अखण्ड रामायण करने और कराने से अमोघ फल की प्राप्ति होती है। अखण्ड रामायण का पाठ बिना खंडित हुए सम्पूर्ण होना चाहिए।
मान्यता है कि अखण्ड रामायण पाठ श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी के समय से ही प्रारम्भ हो गया था। यह पाठ अब भी निरन्तर रूप से बहुत सारे लोग करते अथवा करवाते हैं। बहुत से लोग यह पाठ पुण्य लाभ के लिए तो कुछ कुशल-मंगल कामना की पूर्ति हेतु करवाते हैं।
अखण्ड रामायण पाठ करने के अलावा बहुत भक्त ऐसे भी हैं जो प्रतिदिन (1, 5, 7, 11, अथवा 21) दोहे पढ़ते हैं। कुछ भक्त जन मासपारायण या फिर नवाहपारायण पाठ भी करते हैं यह पाठ भी बहुत फलदायी है।
समय परिवर्तन के साथ-साथ अखण्ड रामायण के करने या कराने के मूल स्वरूप में बहुत ज्यादा परिवर्तन आ गया है जो कि बहुत गलत है और इससे पर्याप्त फल की प्राप्ति भी नही होती है।
अखण्ड रामायण पाठ कर्मकांडी ब्राह्मण के द्वारा कराना चाहिए जो आवश्यक पूजा सम्पन्न करा सके और अपने उद्देश्य अथवा कामना के अनुरूप उचित सम्पुट का चयन करके अखण्ड रामायण का पाठ आरम्भ करें, यह सामान्य रूप से चौबीस घण्टे में पूरा हो जाता है इसके उपरांत हवन, आरती, भजन और भंडारा करवाना चाहिए।
अखण्ड रामायण के दौरान सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि जब तक पाठ पूरा न हो जाए तब तक यह पाठ चलना चाहिए बीच में कोई रुकावट नहीं होना चाहिए जहाँ पाठ चल रहा हो वहाँ अन्य कोई अनर्गल बात किसी को भी नहीं करना चाहिए और न ही पाठ करने वालों को पाठ के अलावा इधर-उधर कुछ बीच में बोलना चाहिए ।
उन व्यक्तियों को पाठ करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए जिन्हें श्रीरामचरितमानस, भगवान श्रीराम और श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी महाराज में श्रद्धा और विश्वास हो।
देखने में आता है कि लोग अखण्ड पाठ का आयोजन करा लेते हैं जबकि रामायण कहने वाले लोग योग्य ही नहीं होते। जो कि बहुत महत्वपूर्ण है कि ऐसे लोगों को जो कभी श्रीरामचरितमानस का पाठ नहीं करते, ऐसे लोग बहुत ही अशुद्ध पढ़ते हैं जबकि पाठ शुद्ध होना चाहिए ये लोग मनोरंजन के लिए आते हैं, इन्हें शुद्धता से कोई भी मतलब नहीं होता है।
बहुत सारे लोग तो ऐसे होते हैं जिन्हें सम्पुट का ध्यान ही नहीं रहता है ये एक बार कुछ और पढ़ेंगे तो दूसरी बार कुछ और पढ़ेंगे जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए ।
रामायण के कुछ विशेष सम्पुट जिसे रामायण में लगाकर पाठ करने से मनवांछित फल कि प्राप्ति होती है।--
1. विपत्ति-नाशन के लिये
राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।
2. संकट नाशन के लिये
जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।
3. क्लेश नाशन के लिये
हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥
4. विघ्न शान्ति के लिये
सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
5. खेद नाशन के लिये
जब तें राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
6. चिन्ता की समाप्ति के लिये
जय रघुवंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥
7. विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति हेतु
दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥
8. मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिये
हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।
9. विष नाशन के लिये
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।
10. अकाल मृत्यु के निवारण हेतु
नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।
11. सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये अथवा भूत भगाने के लिये
प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥
12. नजर झाड़ने के लिये
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
13. खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्ति हेतु
गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।
14. जीविका प्राप्ति के लिये
बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।
15. दरिद्रता मिटाने के लिये
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।
16. लक्ष्मी प्राप्ति के लिये
जिमि सरिता सागर महुँ जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।
17.पुत्र प्राप्ति हेतु
प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।
18. सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये
जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।
19. ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।
20. सर्व-सुख-प्राप्ति के लिये
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।
21. मनोरथ सिद्ध करने के लिये
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।
22. कुशलता के लिये
भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।
23. मुकदमा जीतने के लिये
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।
24. शत्रु के सामने जाने के लिये
कर सारंग साजि कटि भाथा। अरिदल दलन चले रघुनाथा॥
25. शत्रु को मित्र बनाने के लिये
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
26. शत्रु नाशन के लिये
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥
27. वार्तालाप में सफ़लता के लिये
तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥
28. विवाह के लिये
तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥
29. यात्रा सफ़ल होने के लिये
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
30. परीक्षा और शिक्षा की सफ़लता के लिये
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
31. आकर्षण के लिये
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥
32. स्नान से पुण्य लाभ हेतु
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।
33. निन्दा की निवृत्ति के लिये
राम कृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।
34. विद्या प्राप्ति के लिये
गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥
35. उत्सव होने के लिये
सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।
36. यज्ञोपवीत धारण करके, उसकी सुरक्षा के लिये
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।
37. प्रेम बढाने के लिये
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
38. कातर की रक्षा के लिये
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।
39. भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लिये
रामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग ।
सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत न जानइ नाग ॥
40. विचार शुद्ध करने के लिये
ताके जुग पद कमल मनाउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।
41. संशय-निवृत्ति के लिये
राम कथा सुंदर करतारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।।
42. ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।
43. विरक्ति हेतु
भरत चरित करि नेमु तुलसी जे सादर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।
44. ज्ञान की प्राप्ति के लिये
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
45. भक्ति की प्राप्ति हेतु
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।
46. श्रीहनुमान जी को प्रसन्नता हेतु
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।
47. मोक्ष-प्राप्ति हेतु
सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। काल सर्प जनु चले सपच्छा।।
48. श्री सीताराम के दर्शन के लिये
नील सरोरुह नील मनि नील नीलधर श्याम ।
लाजहि तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥
49. श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये
जनकसुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।
50. श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये
केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।
51. सहज स्वरुप दर्शन के लिये
भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।